कामरेड वी.आई. लेनिन की 152 वीं सालगिरह : पर क्रांतिकारी लाल सलाम

दैनिक समाचार

साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था में लेनिन ने यह प्रमाणित किया कि 19वीं सदी के अंत में विश्व पूंजीवाद एक नए दौर में प्रवेश कर गया।

उन्होंने पूंजीवाद की इस चरम अवस्था के पांच विशिष्ट लक्षणों की गणना की। ये पांच लक्षण हैं:
1) उत्पादन और पूंजी का संकेंद्रण, जिसके फलस्वरूप इजारेदार कंपनियों का दबदबा होता है;
2) वित्त पूंजी के साथ परोपजीवी वित्तीय अल्पतंत्र का उत्थान;
3) वस्तुओं के निर्यात से भिन्न और उससे कई गुना बड़े पैमाने पर, पूंजी का निर्यात;
4) अंतरराष्ट्रीय इजारेदार पूंजीपतियों के संघों का निर्माण, जिनके बीच विश्व बाज़ार बंटा हुआ है और जो कच्चे माल के स्रोतों पर अपना नियंत्रण जमाने के लिये आपस में लड़ते हैं; और
5) दुनिया की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकतों के बीच पूरे विश्व के विभिन्न इलाकों का बंटवारा पूरा होना, जिसके फलस्वरूप विश्व का पुनः बंटवारा करने के लिए अंतर-साम्राज्यवादी टकराव। (विस्तृत जानकारी के लिए देखें बॉक्स: साम्राज्यवाद के विशिष्ट लक्षण)।

लेनिन ने साम्राज्यवाद के दौर में पूंजीवाद के असमान आर्थिक और राजनीतिक विकास के नियम की खोज की। तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर उन्होंने यह प्रमाणित किया कि उद्यम, ट्रस्ट, उद्योग की शाखाएं, और प्रत्येक देश का विकास समान रूप से नहीं होता है – न तो किसी निश्चित क्रम में, न ही इस तरह कि कोई खास शाखा या देश हमेशा सबसे आगे रहे, जबकि अन्य ट्रस्ट या देश हमेशा सबसे पीछे रहेंगे। विकास असमान और अनियमित रूप से ऐंठन के साथ, कुछ देशों में रुकावटों के साथ तो कुछ अन्य देशों में तेज़ी से आगे बढ़ता है।

इन हालातों में, ऐसे देश जिनका विकास धीमा हो गया है उनके द्वारा अपने पुराने रुतबे को बरकरार रखने की “बिल्कुल जायज़” कोशिश, और ऐसे देश जो तेज़ी से आगे बढे़ हैं उनके द्वारा अपने लिए नए रुतबे को हथियाने की कोशिश ऐसी परिस्थिति को जन्म देती है, जहां साम्राज्यवादी देशों के बीच हथियारबंद टकराव एक ऐसी ज़रूरत बन जाती है जिससे बचा नहीं जा सकता।

लेनिन ने दिखाया कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अंतिम पड़ाव है, जहां इस व्यवस्था के सभी अंतर्विरोध अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं: पूंजीवादी देशों में शोषक और शोषित के बीच अंतर्विरोध, साम्राज्यवाद और उत्पीड़ित देशों और लोगों के बीच अंतर्विरोध, और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच के अंतर्विरोध। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि साम्राज्यवाद श्रमजीवी क्रांति की पूर्वसंध्या है।

लेनिन ने तर्क दिया कि वित्तीय दमन की इस वैश्विक व्यवस्था के भीतरी अंतर्विरोधों के बढ़ने से और हथियारबंद टकराव की अनिवार्यता से साम्राज्यवाद का विश्व मोर्चा क्रांति का आसान निशाना बन सकता है, और इस मोर्चे में दरार पड़ने की संभावना बढ़ जाती है। इस दरार की सबसे ज्यादा संभावना ऐसी जगह, ऐसे देशों में हो सकती है जहां पर साम्राज्यवादी मोर्चे की जंजीर सबसे कमजोर है, कहने का मतलब है, जहां साम्राज्यवाद सबसे कम एकीकृत है, और जहां क्रांति सबसे आसानी से हो सकती है।

1917 में साम्राज्यवादी जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी पर टूट गयी। वह कड़ी थी जारवादी रूस में। सोवियत संघ में समाजवाद के सफल निर्माण से साम्राज्यवाद और श्रमजीवी क्रांति के संदर्भ में, लेनिन के सिद्धांत की जोरदार पुष्टि हुई।

साम्राज्यवाद के विशिष्ट लक्षण
संकेंद्रण और इजारेदारी : शुरुआती दौर में पूंजीवाद का मुख्य लक्षण था कई पूंजीपतियों के बीच स्पर्धा, जहां प्रत्येक पूंजीपति के पास पूरे बाज़ार का एक छोटा हिस्सा होता था। 19वीं सदी के अंत तक कम से कम हाथों में पूंजी के संचय और संकेंद्रण के साथ कुछ मुट्ठीभर बड़े पूंजीपतियों का उदय हुआ, जो बाज़ार के अधिकांश हिस्से पर नियंत्रण करने लगे, जबकि बहुसंख्य छोटे उत्पादक उनकी दया पर निर्भर थे। पूंजीवादी स्पर्धा विकसित होकर इजारेदरों के वर्चस्व और नियंत्रण में बदल गयी।
वित्त पूंजी की प्रधान भूमिका : जैसे कि औद्योगिक इजारेदारियां, कई औद्योगिक उपक्रमों के बीच स्पर्धा से पैदा हुई थी, वैसे ही बैंक इजारेदारियां कई बैंकों के बीच स्पर्धा से पैदा हुई। बैंक पूंजी के बड़े पैमाने पर संकेंद्रण से कुछ मुट्ठीभर बैंकों पर उद्योगों की निर्भरता बढ़ती गई। इस तरह के बैंक अब केवल बिचैलियों की भूमिका अदा नहीं करते थे, बल्कि उन उद्यमों को निर्देश देने में हस्तक्षेप करने लगे, जिनको उन्होंने कर्ज़ा दिया था।

इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप बड़े बैंक और औद्योगिक इजारेदारों का विलय होने लगा और वित्त पूंजी का उदय हुआ। इससे वित्तीय अल्पतन्त्र का जन्म हुआ। वित्तीय अल्पतन्त्र पूंजीपतियों का एक परोपजीवी तबका है जो वित्त पर अपना नियंत्रण चलाता है, पूरे समाज पर अपना हुक्म थोपता है।
पूंजी का निर्यात : पूंजीवाद के विकास की शुरुआती अवस्था का विशिष्ट लक्षण था औद्योगिक रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं से अर्ध-विकसित और उपनिवेशवादी देशों को वस्तुओं का निर्यात। अब उसकी चरम और अंतिम अवस्था साम्राज्यवाद में पूंजीवाद का विशिष्ट लक्षण है पूंजी का ऐसी जगह को निर्यात होना जहां कच्चा माल और श्रम सबसे कम दाम पर खरीदा जा सकता हो।

अंतर-इजारेदारी टकराव : इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा अधिकतम शोषण और वैश्विक आधार पर लूट के ज़रिये अधिकतम संभव मुनाफे़ की दर हासिल करने की दौड़ के परिणामस्वरूप, उनके बीच तीव्र मुकाबला पैदा होता है। कच्चे माल पर नियंत्रण हासिल करने और सबसे मुनाफेदार बाज़ारों पर हावी होने के लिए ये इजारेदार पूंजीपति कंपनी समूहों और तमाम संघों का निर्माण करते हैं।

इलाकों के पुन : बंटवारे के लिए संघर्ष: 19वीं सदी के अंत तक, दुनिया की प्रमुख पूंजीवादी शक्तियों ने सभी मौजूदा इलाकों पर अपना कब्ज़ा कर लिया था और उन्हें अपना उपनिवेश बना लिया था। इससे और अधिक विस्तार करने का मतलब था, एक दूसरे के इलाकों पर कब्ज़ा जमाने के लिए उन्हें अंतर-साम्राज्यवादी जंग लड़नी होगी।
(स्रोत: वी.आई. लेनिन की “साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था”)
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वर्तमान समय में इस सिद्धांत की वैधता
वर्तमान समय में साम्राज्यवाद जिस खतरनाक रास्ते पर चल रहा है, उससे लेनिन के इस सिद्धांत की वैधता की पुनः पुष्टि होती है। हाल के इस दौर में अपनी आर्थिक शक्ति में गिरावट के साथ अमरीकी साम्राज्यवाद एक के बाद एक अन्यायपूर्ण जंग छेड़ रहा है।

अफगानिस्तान, इराक, लीबिया में हथियारबंद हमले और उन पर कब्ज़ा, सिरिया, यूक्रेन, और यमन में हथियारबंद हस्तक्षेप और पाकिस्तान पर लगातार ड्रोन से हमलों को जायज़ साबित करने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद झूठ फैला रहा है।

जंग छेड़ने की इन सारी कोशिशों के पीछे अमरीकी साम्राज्यवाद का असली मकसद है दुनिया के मामलों में अमरीका के वर्चस्व को बरकरार रखना, विश्व व्यापार में अमरीकी डॉलर का दबदबा कायम रखना, और चीन और रूस समेत अन्य देशों से अमरीकी दबदबे को होने वाले खतरों को कमजोर करना। जंग इसलिये भी ज़रूरी हो गयी है ताकि अमरीका की अर्थव्यवस्था यूरोप की अर्थव्यवस्था से ज्यादा तेज़ी से आगे बढ़ सके।

सारी दुनिया में साम्राज्यवादी जंग के खिलाफ़, मजदूरों, मानव अधिकारों और पर्यावरण पर पूंजीवादी हमले के खिलाफ़ प्रतिरोध बढ़ रहा है।

दुनिया भर में तमाम राष्ट्र और लोग बेहद गुस्से में हैं और अपने देश की अर्थव्यवस्था की साम्राज्यवादी लूट और साम्राज्यवाद-परस्त सत्ता द्वारा फासीवादी दमन के खिलाफ़ लड़ रहे हैं।

मेहनतकश लोग सुरक्षित रोज़गार और इज्ज़त की जिंदगी जीने के बुनियादी अधिकारों पर हो रहे हमलों का विरोध कर रहे हैं। वे ऐसी व्यवस्था को स्वीकार करने से इंकार कर रहे हैं जहां वित्तीय अल्पतन्त्र लोगों को लूट कर बेतहाशा पूंजी इकट्ठा करता है और समय-समय पर पूरे समाज को गहरे संकट में धकेल देता है।
दुनिया भर में होने वाली गतिविधियां यह दिखाती हैं कि लेनिन द्वारा बताए गए तीन प्रमुख अंतर्विरोध बेहद तीव्र होते जा रहे हैं: पूंजीवादी देशों के भीतर शोषक और शोषित लोगों के बीच अंतर्विरोध, साम्राज्यवाद और उत्पीड़ित राष्ट्रों और लोगों के बीच अंतर्विरोध, और साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच आपसी अंतर्विरोध।

इसका मतलब है कि दुनिया भर में श्रमजीवी क्रांति के लिए हालतें परिपक्व हो रही हैं। और ठीक इसी बात के डर से, कि कहीं क्रांति फूट पड़ेगी और साम्राज्यवादियों के स्वर्ग का अंत हो जायेगा, साम्राज्यवादी और प्रतिक्रियावादी सरमायदार लोगों के खिलाफ़ वहशी ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं, और साथ ही साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों के बारे में झूठा प्रचार फैला रहे हैं और उनका विचारधारात्मक विध्वंस कर रहे हैं।

यह एक पड़ाव है, न कि एक नीति
लेनिन ने इस गलत धारणा का पर्दाफाश किया कि साम्राज्यवादी आक्रमण और जंग कुछ खास सरकारों की पसंदीदा नीति है।

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का एक पड़ाव है। दूसरे शब्दों में, देश के भीतर प्रतिक्रियावाद और देश के बाहर आक्रमण ये दोनों ही पूंजीवाद के इस पड़ाव में निहित हैं।

यह खयाल कि एक साम्राज्यवादी शक्ति गैर-आक्रमक और कम दुष्ट नीति अपना सकती है, एक भ्रम है।

इसी तरह के भ्रम आज भी फैलाये जा रहे हैं। जैसे की 2008 में यह भ्रम फैलाया गया कि अफगानिस्तान और इराक में नाजायज़ जंग बुश सरकार की नीतियों का नतीजा है, और ओबामा और डेमोक्रेटिक पार्टी के चुनाव जीतने से बदलाव आएगा। लेकिन तथ्यों से यह स्पष्ट हो गया है कि पार्टी या नेता बदलने से अमरीकी साम्राज्यवाद के आक्रमक और जंगफरोश कार्यवाहियों में कोई भी फर्क नहीं आया।

अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रतिक्रियावादी और खतरनाक चरित्र उसके स्वाभाव से ही पैदा होता है। यह स्वाभाव उसकी पूरी तरह से सैन्यीकृत अर्थव्यवस्था का नतीजा है जिसपर वित्तीय अल्पतन्त्र हावी है, जो जंग पर पनपता है और पूरी दुनिया पर अपना दबदबा बरकरार रखने के लिए जंग पर निर्भर है।

साम्राज्यवादी व्यवस्था में हिन्दोस्तान
हिन्दोस्तान एक पूंजीवादी देश है, जो कि अमरीका और यूरोप से अधिक तेज़ गति से विकसित हो रहा है, और दुनिया के बड़े देशों में केवल चीन से पीछे है। हमारे देश का पूंजीपति वर्ग, जिसकी अगुवाई रिलायंस, टाटा, और अन्य इजारेदार घराने करते हैं, साम्राज्यवादी दौड़ में सबसे आगे जाने और हिन्दोस्तान को बड़े साम्राज्यवादी देशों के विशेष गिरोह, जिसका दुनिया पर दबदबा है, उसका हिस्सा बनाने के लिये बेचैन है। वह एक बेहद खतरनाक खेल खेल रहा है, और अपने आक्रमक साम्राज्यवादी मंसूबों को हासिल करने के लिए करोड़ों मेहनतकश लोगों और देश के भविष्य को खतरे में डाल रहा है।
सभी राष्ट्रों की संप्रभुता की हिफाज़त करने और जिन साम्राज्यवादी देशों ने राष्ट्रीय और मानव अधिकारों का उल्लंघन किया है, उनकी निंदा करने की बजाय, हमारे देश का शासक वर्ग बेहद मौकापरस्त तरीके से कार्यवाही कर रहा है। मनमोहन सिंह की भूतपूर्व सरकार और नरेन्द्र मोदी की वर्तमान सरकार संयुक्त राज्य अमरीका के साथ फौजी, आर्थिक और गुप्तचर सहयोग को इस उम्मीद में मजबूत कर रही है कि इससे हिन्दोस्तान के साम्राज्यवादी मंसूबों को सहायता मिलेगी। फौजी हथियारों का संयुक्त उत्पादन शुरू करने की योजना है, जिससे हिन्दोस्तान नाजायज़ साम्राज्यवादी जंग में फंस सकता है। तथ्य और घटनायें दिखा रही हैं कि हिन्दोस्तानी सरमायदार एक खतरनाक साम्राज्यवादी रास्ते पर चल रहा है।

निष्कर्ष
बढ़ते हुए फासीवादी, पूंजीवादी हमलों और साम्राज्यवादी जंग से सामना करने की जिम्मेदारी मजदूर वर्ग और आम लोगों पर आती है जो कि इस खरनाक रास्ते के शिकार हैं।

हम कम्युनिस्टों को इस साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को विचारधारात्मक और राजनीतिक अगुवाई देने का अपना फर्ज़ निभाना होगा। खास तौर से हम हिन्दोस्तानी कम्युनिस्टों को अपना अंतरराष्ट्रीय फर्ज़ निभाना होगा और इस बात का पर्दाफाश करना होगा कि हिन्दोस्तानी सरमायदारों की भूमिका साम्राज्यवाद और जंग के समर्थन में जाती है, न कि शांति और समाजिक विकास के समर्थन में। हिन्दोस्तान को साम्राज्यवादी जंग में घसीटने के लिए हिन्दोस्तानी शासक वर्ग के तर्कों के साथ किसी भी तरह से समझौते को ठुकराना होगा और उसका विरोध करना होगा, चाहे “आतंकवाद पर जंग”, “राष्ट्र की एकता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा”, का बहाना हो या कोई और बहाना।

आज मानव जाति को सबसे बड़ा खतरा किसी “गैर-राज्य पात्रों” से नहीं बल्कि साम्राज्यवादियों और उन मुख्य शक्तियों से है जो इस व्यवस्था की हिफाज़त करते हैं। साम्राज्यवाद ही आतंकवाद, फासीवाद और जंग का स्रोत है। केवल श्रमजीवी वर्ग और बहुसंख्यक मेहनतकश लोगों का, इस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था को खत्म करने का संघर्ष ही स्थायी शांति कायम कर सकता है।

यह सभी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की जिम्मेदारी है कि वे श्रमजीवी क्रांति के लेनिनवादी सिद्धांत के मार्गदर्शन पर, मजदूर वर्ग को सभी दबे-कुचले तबकों के साथ मिलकर सामाजिक क्रांति को अगुवाई देने के लिए तैयार करें। श्रमजीवी क्रांति के लिए हालात पैदा करना, यह बढ़ते फासीवाद और साम्राज्यवादी जंग को रोकने का एकमात्र रास्ता है।

साम्राज्यवाद की जंजीर फिर से ज़रूर टूटेगी, और समाजवाद और कम्युनिज़्म के इतिहास के एक नए अध्याय की शुरुआत होगी।
लेनिनवाद जिंदाबाद!

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