प्रेमचंद कथा सम्राट नहीं, कहानी के मसीहा हैं. उनकी कहानी “ईदगाह” कौन भूल सकता है? “ईदगाह” का हामिद किसके दिल में बसकर सदा दुलारा नहीं हो जाएगा? कौन माँ पिता दादी हामिद को दुआ नहीं देंगे? कौन दोस्त होगा, जो हामिद के बिना रह पाएगा? हामिद जैसा बच्चा होने से कौन घर स्वर्ग नहीं होगा भले वहां गरीबी हो!
मैंने प्रेमचंद की इस यादगार कहानी को सुनाने की कोशिश की है. कहना चाहूँगा, इस कहानी को माईक के सामने सुनाना आसान नहीं. सुनाते हुए कब गला भर आए! कब हँसी आ जाए! कब विस्मय में पड़ जाएं! कब सोच विचार में पड़ जाएं क्या-क्या कहें! ऐसे में सुनाने की मर्यादा निभाना आसान नहीं. लेकिन मैंने सुनाने की कोशिश की है.
आजकल पवित्र रमज़ान का महीना चल रहा है. मैं सबसे माफ़ी माँगकर कहना चाहता हूं कि इस बार का रमज़ान का महीना कुछ जगह के ग़रीब मुसलमानों के घर कितनी आफ़त कितने दुख लेकर आया. कहानी सुनाने के समय मेरे मन में चलता रहा। इस रमज़ान कितने हामिद खून के आँसू रोये होंगे! वे बेघर होकर कहाँ होंगे! इतनी गर्मी में बच्चों के बेघर हो जाने का दर्द न सहा जा सकता है, न बोल में कहा जा सकता है. हामिद के हिंदू दोस्त कितने उदास होंगे!
लेकिन उस समाज में कोई अपनी ग्लानि का भी क्या करे, जहाँ निरंकुश हिंसा दिनोंदिन बढ़ती जा रही हो? केवल दुःख होता है. कितने अफ़सोस की बात है कि इस बार की ईद कुछ ग़रीब मुसलमानों के टूटे हुए घर में आ रही है. इसे रोका जा सकता था. जाने किस किस की गलती, मनमानी से ऐसा हुआ. लेकिन समर्थ लोगों द्वारा निर्दोषों का ख़याल लाकर तबाही रोकी जा सकती थी.
कहानी “ईदगाह” सुनिएगा. बहुत मन हुआ इसलिए यह कहानी सुनाई है. मुझे बच्चे हामिद से बचपन से बहुत प्यार है. “ईदगाह” कहानी कभी नहीं भूलती. यही दिल में आता है काश! मैं हामिद जैसा होता! हमारे घरों के बच्चे हामिद जैसे हों!
- शशिभूषण
24.04.2022