द्वारा : हरीश चंद्र गुप्ता
एक कॉलेज के समय के पुराने दोस्त जो दशकों संपर्क से परे रहे , फिर इसी बदनातम सोशल मीडिया पर मिले ( रियल लाइफ में नहीं ) और लगभग दो साल अपनी बेटियों के पास न्यूयॉर्क में बिता कर कुछ महीने पहले स्वदेश लौटे तो एक छोटी सी मुलाक़ात हुई। पर दिल भरा नहीं था। अब जाने वाले हैं तो लिखा एक मैसेज में – भाई जल्दी आना फिर मिलेंगे फुर्सत में कॉलेज टाइम की तरह , तो कहा – हां ज़रूर ।
उन्होंने कहा और मैंने कहा , पर दिल ने पूछा क्या वाकई ऐसा होना चाहिए या ऐसा होगा ? जिस तरह के हालात देश में है उसको देख कर ख़तरा ही लगता है। अपने प्रिय हैं , ख़तरे से दूर ही रहें तो अच्छा नहीं है क्या ?
क्या मैं ओवररिएक्ट कर रहा हूं ? हो सकता है आपको लगे पर मुझे ऐसा नहीं लगता । मुझे नहीं लगता कि हम वापस पुराने रास्तों पर कभी लौटेंगे , मुझे अपनी ज़िंदगी में तो मुमकिन नहीं लगता । क्या खोएंगे , किसे खोएंगे पता नहीं ।
एक भयंकर बदलाव बस करवट बदलते ही आने वाला है । अर्थव्यवस्था बिखर चुकी है । सांप्रदायिक भेदभाव लगातार बढ़ रहा है कभी भी कोई बड़ा विस्फोट हो सकता है और प्रतिक्रिया में कौन क्या करेगा पता नहीं । कल एक मित्र ने लिखा है बस दस साल और बचे हैं । उनका आधार समय का चुनावों से है। मुझे नहीं लगता कि चुनावों का कोई महत्व रहेगा जल्दी ही ।
खूनी पंजा खुलकर बाहर दिखने लगा है – खुलेआम तलवारें लहराना और त्रिशूल लहराना दिखा रहा है आने वाले समय का सच । संघ एक शताब्दी की मेहनत के फल को छोड़ देगा यह मुमकिन नहीं है। एक बार तो अपना अरमान पूरा करेगा ही भगवा फहराने का भले ही लोग फटेहाल हैं।
इन सब से बाहर निकलने का एक ही रास्ता है। दुनिया में 50 से अधिक मुस्लिम बहुमत वाले देश हैं। इनको आवाज़ उठानी पड़ेगी अपने मज़हब के लोगों की हिफाज़त के लिए । यह आसान नहीं है क्योंकि आज की दुनिया में पैसा ज्यादा महत्वपूर्ण है हर चीज से। और यदि आवाज़ उठाएंगे भी तो भी कुछ कर पाना आसान नहीं होगा।
ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉनसन और यूरोपियन यूनियन की अध्यक्ष वन डर लेयन के बयानों ने यह साबित कर दिया है की 1.4 अरब आबादी वाले देश से व्यवसाय और उसका इस्तेमाल चीन की घेराबंदी में करना ज्यादा अहम है देश में सिमटते लोकतंत्र के मुकाबले ।
मुश्किल हो या आसान एक ना एक दिन असर होगा ज़रूर। चाहे अमेरिका में अश्वेतों का संघर्ष हो या दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के विरूद्ध संघर्ष हो आसानी से कुछ नहीं हुआ। बहुत कुछ बदलाव हुआ है और संघर्ष अभी जारी है।
बाहर के समर्थन के अलावा दोनों संप्रदायों के बीच घुले जहर को निष्प्रभावी करने का काम भी आसान नहीं रहेगा। सौ साल के विषवमन का असर मिटने में शायद उससे भी अधिक समय लगे क्योंकि बुराई जल्दी फैलती है अच्छाई से।
पर दोनों सिरों पर संघर्ष करना होगा। हिंदुस्तान में ही वह काबिलियत है कि दो बिल्कुल जुदा मज़हबी फ़लसफे मिलकर कुछ नया पैदा कर दें। पिछले तीन चार सौ साल में जो हुआ है वह भी अद्भुत है और जब और मजबूत होगा तो चमत्कार होगा – अब्राह्मिक हिमालयन फ्यूज़न ।