कल लखनऊ विश्व विद्यालय के एक दलित प्रोफेसर, रविकांत के साथ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के गुंडों ने मार पीट की…. एबीवीपी के गुंडों की हिम्मत इतनी बढ़ गई है कि पहले वो वामपंथी विचारधारा के छात्रों पर हमले करते थे और अब प्रोफेसर तक को मारने लगे हैं… अगर समय रहते इनसे उसी वक्त सख्ती से निपट लिया गया होता जब इन्होंने जेएनयू में हॉस्टल पर हमला किया था और छात्र संघ अध्यक्ष आइशी घोष का सिर फोड़ दिया था… प्रोफेसर साहब का कसूर ये था कि उन्होंने सत्यहिंदी पोर्टल पर हुई एक डिबेट में पट्टाभि सीतारमैया के लिखे एक उद्धरण का उल्लेख किया था जो ज्ञानवापी मस्जिद के बारे में था….
इन्होंने जेएनयू में हिंसा की,इन्होंने जामिया में हिंसा की ,इन्होंने बीएचयू में हिंसा की, और अब लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर को मारा…. पर मुझे ये समझ में नही आ रहा कि प्रोफेसर को यह कहने में संकोच क्यूं हो रहा कि उनके उपर जानलेवा हमले का नेतृत्व करने वाला दलित था…आखिर प्रोफेसर साहब मेन आदमी को क्यों बचाना चाह रहे हैं… बात कर रही हूं लखनऊ विश्व विद्यालय की एबीवीपी यूनिट का प्रेसिडेंट, प्रदीप कुमार मौर्या की…… प्रोफेसर की बर्खास्तगी की मांग को लेकर वह एबीवीपी के धरने का नेतृत्व कर रहा है….
प्रोफेसर साहब ने हजरतगंज पुलिस स्टेशन में जो रिर्पोट लिखवाई है उसमें प्रदीप मौर्य का नाम तक नहीं है…. इसके क्या मायने निकाले जाएं.. आप बहुत ज्यादा दिनों तक ये दिखावा नहीं कर सकते कि दलित संघ की घातक विचारधारा का साथी नही है, ये दोष सिर्फ सामान्य और ओबीसी के सिर माथे है…आप आज प्रदीप कुमार मौर्य को बचा सकते हैं पर बहुत ज्यादा दिनों तक इस तथ्य को छुपा नहीं सकते कि दलित के भीतर भी सांप्रदायिकता कूट कूट कर भरी हुई है..
खैर… मुकदमा अब उल्टा प्रोफेसर साहब पर कायम हो गया है.. धारा 153 ए, 504, 505 (2) एवं 66 के तहत प्रोफेसर पर एफआईआर दर्ज की गई है… जबकि प्रोफेसर की तरफ से दर्ज कराई गई नामजद एफआईआर पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई है…
वैसे अब वो लोग कहां हैं जो कहते थे यूनिवर्सिटी में छात्र पढ़ने आते हैं या राजनीति करने…?