- समाज के विकास को समझने के लिए
3 मानवता और शांति के लिए
संक्षेप में वैज्ञानिक दृष्टिकोण
दो हरफी बात…”उतना ही विश्वास , जितने का प्रमाण है”
कारण व प्रभावों का खोजना ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है । अर्थात तार्किक कारणता
मानव की बड़ी ताकत है वैज्ञानिक दृष्टिकोण
जिसके पास नहीं वह कमजोर है और उसका विश्वास है कि
ईश्वर है, भाग्य है, लिखा हुआ है, पहले का किया हुआ है, कर्मों का फल है, पिछले जन्मों का पाप है , अशुभ घडी का जन्म है,
पृथ्वी पर पाये जाने वाले पशुओं में मनुष्य सबसे कमजोर है।
सोचने की बात है कि यह मानव कहे जाने वाला कमजोर पशु समस्त प्रकृति का मालिक कैसे बना ?
460 करोड़ साल पृथ्वी
4 करोड़ साल पहले भालू आये
5 लाख साल पहले मानव जाति का विकास
विकास की प्रक्रिया में अंगूठा अन्य चारों उँगलियों से अलग हो गया और चारों उंगलियां भी अलग अलग हो गयी। मनुष्य ने अंगूठे का प्रयोग अन्य चारों उँगलियों पर किया । उसने इन दस उँगलियों को एक औजार में बदला और इस औजार ने अपने चारों और की प्रकृति पर कार्य किया । इसके साथ ही इस गतिविधि द्वारा उसका मस्तिष्क विकसित होना और बढ़ना शुरू हुआ। हजारों वर्ष यह प्रक्रिया चली । श्रम की बदौलत मनुष्य ने प्रकृति पर कार्य करना शुरू किया और जिससे उसका मस्तिष्क विकसित हुआ। सोचते पशु भी हैं । “मनुष्य एक औजार बनाने वाला पशु है ।”
मनुष्य ने दो पैरों पर चलना शुरू किया तो आगे के दो पैरों को हाथों के रूप में विकसित किया और प्रकृति पर कार्य करना शुरू किया। स्वर तंतु भी सीधे हो गए । इसीलिए मनुष्य ने भाषा ईजाद की। प्रकृति के साथ मानवीय हाथों तथा मनुष्यों के साथ भाषा के संवाद से मनुष्य का मस्तिष्क आकार में बढ़ा। यह वृद्धि किसी पूजा पाठ या कर्मकांड या पूजा यज्ञ के कारण नहीं हुई । 50000 पीढ़ियों की विरासत है आपका दिमाग । 5 लाख साल पहले पुराणी खोपड़ियों के खोल की धारिता 750 ग्राम है । आज आपका मस्तिष्क 1500 ग्राम का है।
A..Science will not fail for lack of human capacity , where it fails it will be for lack of social organisations to make use of that capacity
B. Science in a given time and space, is always relative never absolute .
वैज्ञानिक दृष्टिकोण तो दूर की बात है, वैज्ञानिक शिक्षा भी क्या , शिक्षा ही नहीं है
आज के संदर्भ में बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है। इसके दो पहलू हैं – वैज्ञानिक पद्धति और वैज्ञानिक दृष्टिकोण । वैज्ञानिक पद्धति निरिक्षण , तर्क, अनुमान , अनुभव और प्रयोग के आधार पर कार्य करती है । लेकिन जब हम वैज्ञानिक प्रणाली (पद्धति)को मूल्यों के साथ जोड़ते हैं तो वैज्ञानिक मानसिकता का निर्माण होता है । ये मूल्य क्या हैं ? ये मूल्य हैं
स्वायत्तता,
व्यापकता,
निडरता,
विनम्रता,
तथा जिज्ञासा हैं ।
हमारे समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विस्तार बहुत ही सीमित हुआ है। यह और ज्यादा होना चाहिए।
अभी भी अन्धविश्वास का बोलबाला है ।
इस दृष्टिकोण की कमी के कारण ही आज का वैज्ञानिक समाज से कटा हुआ है और हमारे समाज में घटित हो रही परिवर्तन की प्रक्रियार्ओं से अनभिज्ञ, लोगों के जीवन के यथार्थ से दूर दिखाई देता है। ज्ञान विज्ञान कैसे विकसित हुआ इसका ऐतिहासिक सन्दर्भ भी है और इस क्षेत्र में कुर्बानियां भी काफी हैं।
आज के हालात क्या हैं? विज्ञान का मतलब भौतिक जगत को मान लिया जाता है जबकि सामाजिक क्षेत्र अछूता रहता है। इस प्रकार विज्ञान को भी संकीर्ण दायरे में बांध दिया गया । सवाल यही है कि इसे सामाजिक जीवन का हिस्सा किस प्रकार बनाया जाये? वैज्ञानिकता को आधुनिकता के दौर में समझना है तो आधुनिक तौर तरीकों के अंतर्गत रूप में देखना होगा।आधुनिकतावाद का और वैज्ञानिक रूझान का गहरा अन्तर्सम्बन्ध है। ज्ञान विज्ञान आंदोलन या समाज सुधार आंदोलन का वैज्ञानिक रूझान एक बहुत ही महत्वपूर्ण पक्ष है। यह इसीलिये है क्योंकि साइनटिफिक टेम्पर सामाजिक जीवन का जरूरी पक्ष है। नव जागरण के दौर में जब कोई समाज बदलता है तो संभावनाएं पैदा होती हैं – हमारे चिंतन के स्तर पर , हमारे सोचने विचारने के स्तर पर और फिर बात पैदा होती है कि यह विचार व्यवहार में कैसे ढले?
संभावित और वास्तविक में बड़ा अंतर होता है । आधुनिकता के कई आयाम हैं और अंतर्विरोध भी हैं । आज का जरूरी काम है इन संभावित बातों को लोगों के सामने लेकर आना तथा इस पर विचार करना कि जो कल्पनाएं या वास्तविक संभावनाएं हो सकती थी , मगर नहीं हो सकी, इसकी व्याख्या व विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करना । आज के सामाजिक ढांचे में क्यों बदलाव की जरूरत है ? यह विश्लेषण करना कि जो विकास हो सकता था वह वर्तमान ढाँचे में क्यों नहीं कर पाए? इस बात को पूरी तरह से समझ कर ,इसे बदलना, इसके अधूरेपन को देखना समझना तथा इसमें मौजूद विकृतियों को समझते हुए इन मूलभूत ढांचों में बदलाव के प्रयत्न करना । जो स्थापित रूप है और जो संभावित रूप है उसमें हमेशा अंतर रहता है।
साइंटिफिक टेम्पर के तीन पक्ष हैं जो एक दूसरे से जुड़े हैं और अलग भी हैं । एकांगीपन से आगे नहीं बढ़ा जा सकता । केवल मात्र वैज्ञानिक पद्धति साइंटिफिक टेम्पर नहीं कही जा सकती इसके साथ वैज्ञानिक रूझान और वैज्ञानिक मानसिकता का शामिल होना बहुत आवश्यक है। हिटलर के वैज्ञानिक वैज्ञानिक पद्धति के ज्ञाता थे मगर फासिस्ट रूझान और फासिस्ट मानसिकता रखते थे। आज की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वास्तव में साइंटिफिक टेम्पर हमारी चेतना का हिस्सा कैसे बने? वैज्ञानिक पद्धति या तकनीक उतनी जरूरी चीज नहीं जितनी जरूरी चीज वैज्ञानिक मानसिकता और वैज्ञानिक रूझान हैं ।
इसी के साथ फिर विज्ञान और धर्म तथा विज्ञान और नैतिकता के मामले भी जुड़े हुए हैं । डेढ़ सौ साल पहले महात्मा फुले ने कहा था – पेशवा प्रत्येक लड़ाई में जाने से पहले शुभ समय देखा करते थे , अंग्रेजों के विरुद्ध अपना साम्राज्य गंवा बैठे जो कभी शुभी घड़ी नहीं देखते थे और हर लड़ाई जीतते रहे। यह कैसे हुआ ? महात्मा फुले कहते थे -” हमारी माताओं और बेटियों की शादियां 36 गुण मिलाकर होती रही हैं , फिर भी वे असमय विधवा हो जाती हैं । अंग्रेज औरतें कोई ऐसी जन्म पत्री नहीं देखती और फिर भी वे संतोषजनक जीवन व्यतीत करती हैं । यह कैसे होता है? साइंटिफिक टेम्पर के जरूरी पहलू हैं कि दुनिया माया नहीं है- वह ठोस है। संसार हमारे बिना भी है । इसे मटेरियलिज्म कहा जाता है। जबकि आदर्शवाद या आध्यात्मवाद में चेतना प्राथमिक है। चेतना की प्राथमिकता की समझ मनोगतवाद भी कही जाती है। अर्थात संसार हमारे बावजूद और चेतना सेकंडरी चीज है। यह संसार एक स्वतंत्र इकाई है अपने आप में । इसकी अपनी स्वायत्तता है । यह परिधारना भौतिकवादी है, वस्तुगत है। वास्तव में संसार की आब्जेक्टिविटी है। इसके साथ ही दूसरी बात यह है कि यह संसार अपने आप स्वचालित है- अपने आंतरिक दबावों के कारण । यह संसार का संचालन किसी बाहरी शक्ति पर निर्भर नहीं करता । पूरा का पूरा संसार अपने आप अपने नियमों के तहत चलता है। ( यह ऑटोनोमस है )। तीसरी बात है कि चमत्कारों में विश्वास नहीं करना है।
एक बात और है कि इस संसार के अन्तर्सम्बन्ध हैं। इसमें एक नियमितता है । बेतरतीब नहीं है यह। इसमें एक रेगुलेरिटी है। कोई दैव्य शक्ति नहीं है जो इस संसार को चलाती है। ज्यादातर धर्म बाहरी शक्ति की बात करते हैं ।साइंटिफिक टेम्पर वाला आदमी अंध विश्वासी नहीं है – कट्टरपंथी नहीं है।विज्ञान की दुनिया में कोई बात अंतिम नहीं है । इंसान डोगमैटिक नहीं है । जिद्दी नहीं होता। खुले दिमाग का होता है।
एक टैंटेविनैस होती है। इसमें एक अधूरापन तो होता है । तथ्य पर या सही बात पर आधारित होती है व जाँच परख के बाद ही उस बात या चीज को गलत या सही ठहराया जाता है। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करता तो उसकी वैज्ञानिक सोच नहीं है। धर्म विश्वास पर टिका है । विज्ञान विश्वास पर भी अविश्वास करता है तथा अपने निष्कर्ष आस्था पर आधारित नहीं करता बल्कि इसके निष्कर्ष विश्लेषण करने के बाद आते हैं । कई कट्टरवादी वैज्ञानिक क्या क्यों और कैसे के साथ विचार नहीं करते। असल में वैज्ञानिक खोजबीन वाला प्रश्नसूचक स्वभाव रखते हैं । वे बदलने को तैयार होते हैं ,सुनने को तैयार होते हैं । उनकी डेमोक्रेटिक सोच- बराबर की सोच होती है । सबकी राय को उचित महत्व दिया जाता है। एक खुले समाज में ही साइंटिफिक टेम्पर पनपता है। हर इंसान बराबर है यह खुले दिमाग तथा जनतांत्रिक मान मूल्यों का आधार है। सभी प्रकार की संकीर्णताओं से ऊपर उठकर आधुनिकता , मानवता, जनतंत्र आदि मूल्य वैज्ञानिक में साइंटिफिक टेम्पर के द्वारा ही बनते हैं । इंट्यूशन से, अंदाजे से या रौशनी हो गयी , इन मान्यताओं को तथा अंतर्ज्ञान को विज्ञान प्राथमिक नहीं मानता। इन सब चीजों को जांच परख व तथ्यों के विश्लेषण से एक सिद्धान्त उभरेगा न कि ज्ञान चक्षु पर आधारित चीजें नहीं चल सकती।
Proof with reliable evidence भी साइंटिफिक टेम्पर का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है । तर्क के साथ सोचना भी बहुत आवश्यक पक्ष है मगर महज तर्क या विवेक काफी नहीं हैं ,तथा उस चीज का replicable होना भी जरूरी है । ज्यादा से ज्यादा सही हो precision भी एक पक्ष है सिद्धान्त का। यह पद्धति ज्यादा से ज्यादा accuracy की भी मांग करती है तथा उसका quantification भी किया जा सके। (मापने लायक हों) तर्क और तथ्य के आधार पर समान पक्ष लेना तथा भावनाओं के रंग में नहीं रंगना । भावनाओं से ऊपर उठकर मनोगत नहीं वस्तुगत ढंग से निर्ममता के साथ चीजों को देखना।
विज्ञान और नैतिकता के मामले में यह बात सही है कि वैज्ञानिक नैतिकता मानव के हित की बात करती है। संकीर्ण आधारों पर चीजों को नहीं देखा जाता । विज्ञान धर्म का विरोधी है , धार्मिक नैतिकता के खिलाफ है यह मिथ्या प्रचार है । मानवीय को ज्यादा मानवीय बनाता है विज्ञान व वैज्ञानिक दृष्टिकोण । जादू टोना ही धर्म नहीं है। – यह अन्धविश्वास है। विज्ञान मनुष्य की सहानुभूतियों को विस्तार देता है । विज्ञान का धर्म के मानवतावादी पक्ष से कोई टकराव नहीं है । साइंटिफिक टेम्पर इसका विरोधी नहीं है ।
हमारे संविधान में भी आर्टिकल 51(A)(h) में डायरैक्टिव प्रिंसिपल ऑफ़ स्टेट पॉलिसी के तहत कहा गया है कि यह भारत के हरेक नागरिक का कर्तव्य होगा कि साइंटिफिक टेम्पर , मानवता वाद, स्पिरिट ऑफ़ इन्क्वायरी और रिफार्म का विकास करे।
अब सवाल ये उठता है कि भारत में वैज्ञानिक मानसिकता की जड़ें क्यों नहीं जम पाई और उसका फैलाव क्यों नहीं हो पाया?
यह सही है कि एक समय था जब भारत में वैज्ञानिक मानसिकता थी। बुद्ध और उससे पहले चार्वाक और लोकायत ने उस समय तार्किक सोच को प्रतिपादित किया। वाराहमिहिर, आर्यभट्ट, सर्जन सुश्रुत भी हुए। 7वीं सदी
ईसा पश्चात से लेकर 18वीं सदी ईसा पश्चात तक (1000)साल तक अंधकार का युग रहा । कई बेहतरीन राजा थे, बेहतरीन दार्शनिक थे, बेहतरीन सन्त और समाज सुधारक थे मगर वैज्ञानिक कोई नहीं था ।
1 सर्व प्रथम हमारी संस्कृति में सवाल पूछे जाने को प्रतिष्ठा नहीं दी जाती ।
2 हमारे समाज में वैज्ञानिक मानसिकता का प्रसार न होने का दूसरा कारण परिवार में निरंकुशता का होना है।
3 तीसरी बात यह है कि महान व्यक्तियों को देवताओं की तरह पूजा जाना है। आ लोचनात्मक विश्लेषण व्यक्तियों का नहीं किया जाता।
4 वैज्ञानिक मानसिकता की राह में चौथी रूकावट हमारे आमजन पर परम्परागत रीति रिवाज का जबरदस्त शिकंजा है ।
5 हमारे देश में वैज्ञानिक मानसिकता के विकास न कर पाने का सब से महत्वपूर्ण कारण जाति-व्यवस्था और पितृसत्ता है।
6 हमारे देश में आज भी ब्रह्म और परब्रह्म है- इन दोनों का मिश्रण है। यही सत्य है बाकी सब मिथ्या है । संसार ही स्वयं में मिथ्या या माया है तो यहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास कैसे हो ?
साइंटिफिक टेम्पर पर हमला आज कल बहुत तेज हो गया है । वैज्ञानिक विचारों और इतिहास का मिथ्याकरण जोर शोर से किया जा रहा है ।
इन्टॉलरेंस हदें पार करती जा रही हैं
वैज्ञानिक , धर्मनिरपेक्ष और विवेकशील बुद्धिजीवियों का कत्ल कट्टरपंथी ताकतों ने कर दिए हैं । डॉ नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, एम एम कुलबर्गी , गौरी लंकेश
संक्षेप में वैज्ञानिक नजरिया या दृष्टिकोण जीवन को देखने का एक दृष्टिकोण है , सफल होने का तरीका है और एक अच्छा इंसान बनने का। यदि हम यह विश्व दृष्टिकोण अपनाते हैं , हम अपने जीवन में मौलिक बदलाव कर सकते हैं , अपने सामूहिक जीवन में, अपने सामाजिक जीवन में और यहाँ तक कि अपने देश के जीवन में । आईये हम इस प्रकार के बदलाव के लिए प्रतिबद्ध हों ।
रणबीर सिंह दहिया