व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा
मोदी जी गलत नहीं कहते हैं। वह कुछ भी करें, उनको विरोधियों से हमेशा विरोध ही मिलेगा। हां! हेमंत बिश्वशर्मा की तरह, विरोधी खुद ही पाला फांद कर, उनके भक्तों मेें मिल जाएं, तो बात दूसरी है।
अब बताइए, जब मोदी जी देश में सबके लिए अमृतकाल लाए हैं, तो क्या स्टूडेंट लोग को यूं ही छोड़ देते, बिना अमृत पिलाए। आखिर, अमृतकाल के अमृत में कुछ हिस्सा तो स्टूडेंट लोग का भी बनता है या नहीं?
पर अमृत पिलाने की छोड़ो, मोदी जी का इतिहास की पढ़ाई के बोझ में जरा-सी काट-छांट कर के, स्टूडेंट लोग की जिंदगी में कुछ पल की खुशी लाना भी गुनाह हो गया। कोई इसे बच्चों को अनपढ़ बनाना बता रहा है, तो कोई सांप्रदायिक बनाना। यह कोई नहीं देखता कि यह तो शुद्ध रूप से बच्चों को खुश करना है। बच्चों को इतिहास-मुक्त कर के खुश करने के रास्ते पर बढ़ेगा इंडिया, तभी तो वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडैक्स में ऊपर चढ़ेगा इंडिया। पर विरोधियों को तो बस विरोध करने से मतलब है, उन्हें न बच्चों की खुशी से मतलब है और न हैप्पीनेस इंडैक्स में नये इंडिया के, नये अफगानिस्तान से पीछे रह जाने से। और विरोध भी वो वाला कि चित भी मेरी, पट भी मेरी! बताइए, अंगरेजी राज से भी पुराने, मुगलों वगैरह के राज के पूरे-पूरे चैप्टर फाड़ दिए, तो उसका भी विरोध कर रहे हैं। सैकड़ों साल गायब ही कर दिए, ये कैसा इतिहास हुआ? लेकिन, जब बाकी सब रखा बस, गुजरात के 2002 के नरसंहार के आगे से सिर्फ मुस्लिमविरोधी का विशेषण उड़ा दिया, तो उस पर भी आब्जेक्शन है। यह तो काट-छांटकर अर्थ का अनर्थ ही करना हो गया! जरा सा जनतंत्र को छांट दिया, तो यह तानाशाही का आना हो गया!
जरा सा छांटें तो भी विरोध, पूरा काटें तो भी विरोध; मोदी जी बच्चों को अमृतकाल का अमृत बांटें भी तो बांटें कैसे?
और तो और विरोधियों को तो इतिहास की इतनी-सी साफ-सफाई तक मंजूर नहीं है कि कम से कम कहानी में खून-वून का जिक्र न रहे; बच्चों पर बुरा असर पड़ता है। कहते हैं कि गांधी की हत्या और उसके चक्कर में आरएसएस पर पाबंदी का जिक्र क्यों हटा दिया? हत्या, गांधी की हो या किसी और की, हत्या अगर बुरी चीज है, तो उसे बार-बार याद करना अच्छा कैसे हो सकता है? स्वच्छता ज्यादा बड़ी चीज है, इतिहास तो लिखते-मिटते रहते हैं।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं)