IPC की धारा 124-A की वैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती, क्या राजद्रोह कानून को खत्म कर देना चाहिये?

न्यायालयीन प्रकरण

      सर्वोच्च न्यायालय ने इंडियन पीनल कोड (IPC) की धारा 124-A को चुनौती देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार से दो हफ्ते में जवाब मांगा है। यह कानून राजद्रोह के मामले में सजा तय करता है। सुप्रीम कोर्ट 27 जुलाई को इसकी वैधानिकता पर सुनवाई शुरू की है।

                2021 के मई में मणिपुर के किशोरचंद्र वांगखेमचा और छत्तीसगढ़ के कन्हैया लाल शुक्ला ने याचिका दाखिल की थी। ये पत्रकार हैं। इन दोनों के खिलाफ इस सेक्शन के तहत केस दर्ज हुआ है और दोनों को जेल में भी रहना पड़ा है। इन पत्रकारों का आरोप है कि सरकारें आलोचना भी सुनने को तैयार नहीं हैं। अगर कोई आलोचना करता है तो सेक्शन 124-A के तहत उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है। देशद्रोह के कानून को रद्द करने का यह पहला मामला नहीं है; बल्कि इससे पहले भी कई बार ऐसे मामले सामने आये हैं।

क्या है IPC की धारा 124-A ? इस पर इतना सवाल क्यों?

      भारतीय दंड संहिता की धारा 124-A में राजद्रोह की सजा का उल्लेख है। यह कैसे पता चलेगा कि किसी व्यक्ति ने राजद्रोह किया है या नहीं। इस पर कानून में राजद्रोह के चार स्रोत बताए गए हैं- बोले गए शब्द, लिखे गए शब्द, संकेत या कार्टून, पोस्टर या किसी और तरह से प्रस्तुति।

      अगर दोष साबित हो गया तो तीन साल की सजा या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। इस कानून के तहत अधिकतम सजा उम्रकैद की है। इसके अलावा इस सेक्शन के साथ तीन स्पष्टीकरण भी दिए गए हैं। असंतोष में, देशद्रोही और दुश्मनी की सभी भावनाएं शामिल हैं। दूसरा और तीसरा स्पष्टीकरण कहता है कि कोई भी व्यक्ति सरकार के फैसलों या उपायों पर टिप्पणी कर सकता है, पर उसमें उसका अपमान या नफरत नहीं होनी चाहिए। उदाहरण के लिये अगर आपने कहा कि यह सरकार अच्छी है, पर वैक्सीन पॉलिसी खराब है तो यह राजद्रोह नहीं है। पर अगर आपने सिर्फ इतना लिखा या कहा कि सरकार की वैक्सीन पॉलिसी खराब है तो यह राजद्रोह बन सकता है।

इस कानून को कब, कौन और क्यों बनाया था?

      साल 1870 में IPC बना और लागू हुआ। इस कानून को जेम्स स्टीफन ने लिखा था। राजद्रोह से जुड़े कानून पर जेम्स का कहना था कि सरकार की आलोचना बर्दाश्त नहीं होगी। उसने तो यह फैसला भी पुलिस पर छोड़ दिया था कि किस हरकत को देशद्रोह माना जा सकता है और किसे नहीं। साफ है कि उस समय अंग्रेज भारत की आजादी के आंदोलन को दबाना चाहते थे और इसके लिए यह कानून लाया गया था।

                इस कानून को लेकर 1891 के बांगोबासी केस, 1897 और 1908 में बाल गंगाधर तिलक के केस और 1922 में महात्मा गांधी के केस में अदालतों ने कहा कि जरूरी नहीं कि हिंसा भड़कनी चाहिए। अगर अधिकारियों को लगता है कि किसी बयान से सरकार के खिलाफ असंतोष भड़क सकता है तो राजद्रोह के तहत गिरफ्तार कर सजा सुनाई जा सकती है। तिलक के केस में तो जस्टिस आर्थर स्ट्राची ने यहां तक कहा था कि असंतोष भड़काने की कोशिश करना भी राजद्रोह है।

केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार केस, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है

      आज सुप्रीम कोर्ट के सामने जो प्रश्न है, वह छ: दशक पहले भी था। 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार के खिलाफ दाखिल केदारनाथ सिंह की याचिका पर राजद्रोह के कानून, यानी सेक्शन 124-A को कायम रखा था। उसके बाद से हर केस में इस फैसले का जिक्र आता है।

                1953 में केदारनाथ सिंह बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता थे। बेगुसराय की एक रैली में उन्होंने सत्ताधारी कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोला था। उन्होंने कहा था कि आज सीबीआई के कुत्ते बेगुसराय के आसपास घूम रहे हैं। कई ऑफिशियल कुत्ते इस रैली में भी हैं। भारत के लोगों ने जिस तरह अंग्रेजों को देश से बाहर निकाला और कांग्रेसी गुंडों को गद्दी पर बिठा दिया। जिस तरह हमने गोरों को भगाया, वैसे ही हम कांग्रेसियों को भी भगाएंगे। केदारनाथ के ऐसे तीखे भाषण के बाद प्रशासन सक्रिय हुआ। फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट ने केदारनाथ को राजद्रोह का दोषी माना और सजा सुना दी थी। पटना हाईकोर्ट ने भी उनकी अपील को खारिज कर दिया। तब 1962 में सुप्रीम कोर्ट में केदारनाथ सिंह ने सेक्शन 124-A की संवैधानिक वैधता को खत्म करने की मांग की थी। उनका कहना था कि संविधान के आर्टिकल 19 में उन्हें बोलने की आजादी मिली है और यह कानून उन्हें उनके मूल अधिकार से वंचित कर रहा है। तब सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान बेंच ने इस कानून की वैधता को तो कायम रखा, पर इसका इस्तेमाल कब और कैसे किया जा सकता है, इसके लिए नियम तय कर दिए। तय हुआ कि सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नहीं है। अगर लिखे या कहे गए शब्द सरकार के खिलाफ हिंसा भड़काने या कानून-व्यवस्था बिगाड़ने के लिए हैं तो ही राजद्रोह का दोष बनेगा, अन्यथा नहीं। हालांकि केदारनाथ सिंह केस के बाद भी इसका दुरुपयोग होता रहा।

दुनियाभर में राजद्रोह कानूनों की स्थिति

      दुनिया को राजद्रोह से जुड़े कानून देने वाले तथा भारत में इसे लाने और लागू करने वाले यूके में यह 2009 में खत्म हो गया है। इसी तरह ज्यादातर देश या तो इसे खत्म कर चुके हैं या दुरुपयोग रोकने के लिए शब्दों में बदलाव कर चुके हैं-

  • यूनाइटेड किंगडमः 2009 में राजद्रोह कानून रद्द हो गया। यह बदलाव 12 जनवरी, 2010 से लागू हुआ। पर ऐसे व्यक्ति के खिलाफ राजद्रोह का केस चल सकता है, जो यूके का नागरिक नहीं है।
  • न्यूजीलैंडः संसद ने 2007 में राजद्रोह से जुड़े कानून को रद्द कर दिया। यह बदलाव  1 जनवरी, 2008 से लागू हुआ।
  • स्कॉटलैंडः क्रिमिनल जस्टिस एंड लाइसेंसिंग एक्ट 2010 के सेक्शन 51 के हवाले से 28 मार्च, 2011 से राजद्रोह के तहत सभी प्रावधानों को हटा दिया गया।
  • इंडोनेशियाः 2007 में इंडोनेशिया ने राजद्रोह कानून को असंवैधानिक करार दिया।
  • घानाः संसद ने क्रिमिनल लिबेल एंड सिडेशियस लॉ को रद्द किया। इससे राजद्रोह का कानून खत्म हो गया।
  • ऑस्ट्रेलियाः क्राइम एक्ट 1920 में राजद्रोह अपराध था। 1984 और 1991 में इसकी समीक्षा हुई। 2010 में राजद्रोह शब्द की जगह ‘हिंसक अपराधों के लिए उकसावा’ लिखा गया।
  • अमेरिकाः कानून में इतने बदलाव हो चुके हैं कि यह अब डेड लॉ है। कानून में ‘यूज ऑफ फोर्स’ और ‘कानून का उल्लंघन’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल राजद्रोह को परिभाषित करने के लिए किया गया है।
  • भारत में स्थितिः लॉ कमीशन की 2018 की रिपोर्ट में सेक्शन 124-A पर विस्तार से चर्चा की गई थी। इसमें सुझाया गया कि सेक्शन 124-A का इस्तेमाल उन्हीं मामलों में होना चाहिए, जहां कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने या सरकार को हिंसक या अवैध तरीके से हटाने की मंशा दिखाई दे। यहाँ तक कि सिविल राइट एक्टिविस्ट, वकील और कई एकेडेमिशियन भी इसकी मांग कर रहे हैं।

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