दोस्तों,
आज़ादी के 75 साल के मौके पर निकलने वाली ‘‘ढाई आखर प्रेम की सांस्कृतिक यात्रा’’ असल में स्वतंत्रता संग्राम के गर्भ से निकले स्वतंत्रता – समता – न्याय और बंधुत्व के उन मूल्यों के तलाश की कोशिश है, जो आजकल नफ़रत, वर्चस्व और दंभ के तुमुल कोलाहल में डूब से गये हैं। हालांकि वो हमारे घोषित संवैधानिक आदर्शों में झिलमिलाते हुये हर्फ़ों के रूप में, गांधी के प्रार्थनाओं और आंबेडकर की प्रतिज्ञाओं के रूप में हमारी आशाओं में अभी भी चमक रहे हैं। इन्हीं का दामन पकड़कर हमारे किसान, मजदूर, लेखक, कलाकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता गांधी के अंहिसा और भगत सिंह के अदम्य शौर्य के सहारे अपनी कुर्बानी देते हुए संवैधानिक मूल्यों की रक्षा में डटे हैं।
यह यात्रा उन तमाम शहीदों, समाज सुधारकों एवं भक्ति आंदोलन और सूफ़ीवाद के पुरोधाओं का सादर स्मरण है, जिन्होंने भाषा, जाति, लिंग और धार्मिक पहचान से इतर मानव मुक्ति एवं लोगों से प्रेम को अपना एकमात्र आदर्श घोषित किया।
प्रेम जो उम्मीद जगाता है, प्रेम जो बंधुत्व, समता और न्याय की पैरोकारी करता है, प्रेम जो कबीर बनकर पाखंड पर प्रहार करता है, प्रेम जो भाषा, धर्म, जाति नहीं देखता और इन पहचानों से मुक्त होकर धर्मनिरपेक्षता का आदर्श बन जाता है।
आइए… ‘ढाई आखर प्रेम की’ इस यात्रा के बहाने बापू के पास चलें, भगत, अशफ़ाक़, बिस्मिल और अनेकानेक शहीदों के पास चलें। उस हिंदुस्तान में चलें जो आंबेडकर और नेहरू के ख्वाब में पल रहा था, जो विवेकानंद के नव वेदांत और रविन्द्रनाथ टैगोर के उद्दात मानवतावादी आदर्शों में व्यक्त हो रहा था। मानवतावाद जो अंधराष्ट्रवादी – मानवद्रोही विचार को चुनौती देते हुए टैगोर के शब्दों में ‘‘उन्नत भाल और भय से मुक्त विचार’’ में मुखरित हो रहा था। जहां ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले फातिमा शेख़ और पंडिता रमाबाई जैसे लोग ज्ञान के सार्वभौम अधिकार के लिए लड़ रहे थे। जो आज तक भी हासिल नहीं किया जा सका है। वहीं अंधविश्वास और रूढ़िवाद के खिलाफ ईश्वरचंद्र विद्यासागर, राम मोहन राय, पेरियार ईवी रामासामी सरीखे लोग तर्क बुद्धि और विवेक का दामन पकड़कर एक तर्कशील हिंदुस्तान के रास्ते चल रहे थे। यह रास्ता प्रेम का ज्ञान का रास्ता है।
इन्ही सूत्रों को पकड़ कर एक तरफ प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर के नेतृत्व में 9 अप्रैल 1936 में प्रलेस की स्थापना हुई जिसे राहुल सांकृत्यायन, यशपाल आदि ने आगे बढ़ाया। 1942 के ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ और दूसरी ओर बंगाल के अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए देश भर के कलाकार एकजुट हुए और ‘‘नबान्न’’ नाटक के साथ इप्टा की यात्रा शुरू हुई।
हमारी यह यात्रा उसी सिलसिले को आगे बढ़ाने वाली और नफ़रत के बरक्स प्रेम, दया करुणा, बंधुत्व, समता और न्याय से परिपूर्ण हिंदुस्तान के स्वप्न को समर्पित है। जिसे हम और आप मिलकर बनाएंगे। जो बनेगा जरूर।
वो सुबह कभी तो आयेगी…!
वो सुबह हमीं से आयेगी….!!
कला जनता के नाम एक प्रेमपत्र है वहीं सत्ता के नाम अभियोगपत्र भी। आइए आज़ादी के 75वें साल में हम सब मिल कर आज़ादी की लड़ाई के जाने-अनजाने योद्धाओं, लेखकों और कलाकारों को बार बार याद करें और उनकी बनाई राह पर चलें। यह यात्रा पूरी तरह जन सहयोग पर आधारित है।आप यात्रा के किन्ही पड़ावों पर गीत,कविता,नुक्कड़, लघु नाटक, पोस्टर,पेंटिंग के साथ शामिल हो सकते हैं,यात्रा के समर्थन में अपने स्थानों पर कार्यक्रम आयोजित कर सकते हैं और कुछ नही तो यथासंभव आर्थिक सहयोग कर सकते हैं।सहयोग राशि इप्टा के खाते SB a/c 0294000100398950 Bhartiya jan natya sangh IPTA PNB hazrat ganj lucknow.Ifs code:PUNB0029400 में भेजी जा सकती है।सहयोग और किसी भी जानकारी के लिए मेरे नंबर 9580454601 पर सम्पर्क कर सकते हैं।राकेश,महासचिव,इप्टा। Dhai Akhar Prem ki yatra is actually an attempt to reestablish the values of freedom, equality, justice and fraternity that emerged from the womb of the freedom struggle, which today have been overshadowed by hatred, domination and arrogance. Despite that these values are still shining in our hopes, as Gandhi’s prayers, as joy gleaming in our declared constitutional ideals. By holding on to which our farmers,workers and human right activists have been engaged in building society by sacrificing their lives with the help of Gandhi’s non-violence and Bhagat Singh’s valor.
This yatra is a virtuous remembrance of all those martyrs, social reformers, forefathers of Bhakti movement and Sufism, who declared human liberation and love as their only ideal setting aside language, caste, gender and religious identity. The love that awakens hope, the love that advocates fraternity and justice, the love that stands firm against religious social hypocrisy by becoming Kabir. Let us go to Bapu, Bhagat, Ashfaq, Bismil and many other martyrs on the pretext of this journey of Dhai Akhar Prem.
Let us move on to the India that was growing up in the dreams of Babasaheb Ambedkar and Nehru, which was being expressed in the neo Vedanta of Vivekananda and the humanistic ideals quoted by Rabindra Nath Tagore”Where the mind is without fear and the head is held high”.This journey is a journey to the Hindustan where people like Jyotiba Phule, Savitribai Phule, Fatima Sheikh and Pandita Ramabai were fighting for the universal right to knowledge . Where people like Ishwar Chandra Vidyasagar Rammohan Roy Periyar E V Ramaswamy,Dabholkar,Govind pansare,kalburgi,Gauri Lankesh taught us to stand firm against superstition and conservatism by holding the hand of reason, intelligence and conscience, this is the path of love.
Encompassing threads of these ideals, the Quit India Movement of 42 on one side and famine of Bengal on the other, artists and cultural workers from all over the country were united to help the victims of Bengal famine IPTA began it’s journey which is still going on and this journey of Dhai Akhar Prem is in a way extension of ongoing journey dedicated to India full of love, compassion, fraternity equality and unity where hatred has no place.Our plays, songs,poems,stories paintings and all art forms dream of that golden morning.
That morning is sure to come.
That morning will come from us..