कम्युनिस्ट पार्टियों की प्रासंगिकता, उनकी ताक़त और कमजोरियों को देखते हुए दो मुद्दे उभर कर सामने आते हैं

दैनिक समाचार

द्वारा : अरुण सिंह

  1. कम्युनिस्ट ताकतें पूंजीवादी ताकतों का मुकाबला उस तरह से करने में सक्षम नहीं हैं जैसा कि सामंती ताकतों के खिलाफ इन लोगों ने किया था. वैचारिक तौर पर साम्यवाद हमेशा पूंजीवाद को हराने की बात करता आया हो लेकिन पूंजीवादी ताकतों से निपटने में कम्युनिस्ट सक्षम नहीं हुए हैं.

यही वजह है कि वे समाज के सबसे पिछड़े इलाके में बहुत सताए गए लोगों को एकजुट कर सकते हैं, उन्हें संगठित कर सकते हैं.लेकिन अगर हालात बदलते हैं और लोगों की स्थिति बेहतर हो जाती है चाहे वह सरकार के दखल के चलते हो या फिर सामाजिक प्रगति के चलते हो तो साम्यवाद उन इलाकों में अपनी पकड़ खो रहा है.

इसके लिए कहीं व्यापाक संदर्भ में मूलभूत सिद्धांतों में बदलाव लाने की जरूरत है. वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने प्रारूप में बदलाव किया है लेकिन साम्यवाद में ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिला है.

भारतीय कम्युनिस्टों ने कभी जाति पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, कह सकते हैं कि उसके यर्थाथ को भी नहीं समझा. जबकि यह उन्हें करना चाहिए था क्योंकि जाति भारतीय समाज की एक सच्चाई है. उन्होंने चीन और रूस में अपनाए तरीकों और समझ को अपनाया लेकिन भारतीय समाज के जाति समीकरणों की परवाह नहीं की.

इन लोगों ने भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका को भी नहीं समझा. आंबेडकर एस.ए. डांगे के समय में सामाजिक संघर्ष का नेतृत्व कर रहे थे लेकिन डांगे ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया. आधारभूत ढ़ांचे और जनाधार के दम पर जाति के सवाल को कमतर करके आंका गया. इन सबका नतीजा क्या निकला यह हमलोग आज देख रहे हैं.

  1. समय के साथ जब जाति सामाजिक पूंजी के तौर पर तब्दील होने लगा और राजनीतिक तौर पर एकजुट होने की वजह बनने लगा तब वामपंथियों के लिए किनारे खड़े होकर देखने के सिवाए कोई विकल्प नहीं बचा. कम्युनिस्ट ना तो जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए कोई मजबूत कार्यक्रम बना पाए और ना ही मौजूद जातिगत समीकरणों के लिए उपयुक्त रणनीति ही विकसित कर सके.

हालाँकि प्रत्येक कम्युनिस्ट पार्टी यही दावा कर रही है कि वह अपनी इन कमजोरियों से उबर जाएगी. बीबीसी तेलुगू से बात करते हुए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने कहा कि संसद में मौजूद वामपंथी दलों के सदस्यों की संख्या से वामपंथी दलों की ताक़त का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए.

उन्होंने कहा कि सेक्युलरिज्म की रक्षा में, प्रत्येक क्षेत्र में दबदबा रखने वालों के ख़िलाफ़ संघर्ष में और समाज में प्रगतिशील चेतना विकसित करने में वामपंथी दलों की अहम भूमिका रही है.

कुछ स्वतंत्र शोधकर्ताओं के मुताबिक भी मजदूरों, किसानों और श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा में वामपंथी दलों की अहम भूमिका रही है. कम्युनिस्ट पार्टियों और नक्सली पार्टियों ने कई प्रगतिशील क़ानूनों बनवाने में दवाब समूहों का काम किया है.

विभिन्न इतिहासकारों के पिछड़े इलाकों में किए गए शोधों से यह जाहिर होता है कि अत्यंत पिछड़े और काफ़ी भेदभाव और असमानता वाले इलाकों में लोगों को एकजुट करने और कुछ हद तक अधिकार हासिल करने में पार्टी को कायमाबी मिली है.

शोध अध्ययनों के मुताबिक लोगों को जो अधिकार मिले हैं उसमें बंधुआ मजदूरी से मुक्ति और भूमि सुधार जैसे क़दम शामिल हैं.

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के सौ साल में कई तरह के विश्लेषण हुए हैं. यह भी वास्तविकता है कि कम्यूनिस्ट पार्टियां आज ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ी हैं. संसदीय राजनीति में भरोसा रखने वाली और गैर संसदीय राजनीति में भरोसा रखने वाली- सभी तरह के वामपंथी दलों को उम्मीद है कि संघर्ष लंबा है लेकिन भविष्य में ताक़त हासिल होगी.

लेकिन सवाल यह है कि जिस रफ्तार से समाज में बदलाव हो रहा है उस रफ्तार में ये पार्टियां खुद में बदलाव ला रही हैं, खुद को प्रासंगिक रख पा रही हैं? साम्यवाद की ओर से हमेशा कहा जाता रहा है कि सरकारें बेअसर होती जा रही हैं लेकिन क्या साम्यवाद खुद को निष्प्रभावी होने से बचाने में सक्षम होगा?

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