नैतिकता का पतन

दैनिक समाचार

द्वारा : तुषार पटेल

मुझे एक बात से बड़ी हैरानी होती है कि भारत में लोग किस मुंह से धर्म, नैतिकता, मानवता और चरित्र की बात कर लेते हैं.. ये वही लोग हैं जो कोरोना महामारी के समय रेमडेसिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी करते हैं.. दो हजार रुपए का इंजेक्शन अस्सी हजार में बेचते हैं… वरना किसी के भी परिवार का दिया हमारे सामने बुझ जाए हम पर फर्क नही पड़ता.. वो बात अलग है कि माला हम रोज दो घंटे जपते हैं…

कौन सी मानवता… कौन सा भाईचारा… हम लोग ही थे जो महामारी के समय अपनी प्राइवेट एंबुलेंस से लाशों को ढोने के लिए मैक्सिमम बार्गनिंग कर रहे थे मरने वालों के परिवार से… पैसे नहीं थे तो मरने वालों को शमशान घाट तक नही पहुंचाया हमने… बेड उपलब्ध होने पर भी गरीब आदमी जो रोज का दस हजार रु चार्ज नहीं दे सकता था को अपने प्राइवेट हॉस्पिटल में बैड नहीं दिया हमने… तड़प तड़प के जाने कितने मर गए हमारे अस्पतालों के गेट पर…

कैसी दया, करुणा, ममता… खाली ऑक्सीजन सिलेंडर पांच से दस हजार रूपए प्रति दिन के चार्ज पर किराए पर दिए हमने… जो नहीं ले सका उसको मरने दिया…

सदी की सबसे बड़ी महामारी को हमने ज्यादा से ज्यादा भुनाया… दो दो हजार रुपए प्रॉफिट कमाने के लिए हमने मर जाने दिया किसी के अपनों को… महामारी हमारे लिए उत्सव थी और मौतें कमाई का जरिया… लाश जलाने तक में डीलिंग, नही था पैसा जिनके पास वो भारी मन से अपनों की लाशों को मजबूरी में शमशान के बाहर रखकर चले गए…

इसलिए अब मेरा भरोसा नही बचा भाईचारे, नैतिकता, दया, करुणा, धर्म अधर्म, व्रत ,परोपकार आदि चोंचलों में… मानवता की बातें अब अच्छी नहीं लगतीं मुझे… पहले मानवता, आस्था में थोड़ा यकीन था पर कोरोना महामारी मे लोगों को आपदा में अवसर तलाशते देखने के बाद वो भी खतम हो गया।

हाँ, अपवाद स्वरूप सिक्खों में, गुरुद्वारों में,हिंदुओं के शवों का अन्तिम संस्कार मुसलमानों ने किया इंसानियत तब भी बाकी दिखाई दी।

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