अमरीकी पूंजीवाद एक ओर गहन घरेलू समस्याओं में घिरा है (भयंकर महंगाई ने 60% परिवारों को घर खर्च चलाने लायक हालत में नहीं छोडा है जिससे अमरीकी मजदूर वर्ग में यूनियनें गठित करने और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की एक नई लहर उठ खडी हो रही है.)
दूसरी ओर, अपनी औद्योगिक क्षमता के अत्यंत क्षीण होते जाने से घरेलू अर्थव्यवस्था में सरप्लस वैल्यू अर्थात मुनाफे का स्रोत अत्यंत सीमित है.
अमरीकी वित्तीय पूंजीपति अपने मुनाफों के लिए दुनिया भर के श्रमिक वर्ग के शोषण और वहां के संसाधनों की लूट पर निर्भर हैं.
किंतु पहले से ही संसाधनों के क्षेत्र में धनी रहे और पिछले दो दशक में औद्योगिक वित्तीय क्षेत्र में मजबूत हुए चीनी-रूसी पूंजीवाद व अन्य कई देशों के उभरते पूंजीपति दुनिया की इस लूट में अमरीकी-नाटो खेमे के इस एकछत्र राज को निरंतर बढती चुनौती दे रहे हैं.
यहां तक कि राजनीतिक तौर पर उनके खेमे की ओर ही झुके भारत जैसे बडे पूंजीवादी देशों के पूंजीपति भी दुनिया की लूट में अपना छोटा ही सही पर एक हिस्सा चाहते हैं, अतः कई मामलों में अमरीकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने का रूझान दिखाते हैं.
इसने साम्राज्यवादी खेमों के बीच दुनिया पर प्रभुत्व के पुनर्बंटवारे की छीना झपटी को जन्म दिया है और पूर्व में हावी रहा अमरीकी साम्राज्यवाद अपने प्रभुत्व को बचाने के लिए युद्ध की धमकियां दे रहा है, पर पहले सीरिया फिर उक्रेन का घटनाक्रम दिखा चुके हैं कि दूसरा खेमा अब इन धमकियों से पीछे हटने को तैयार नहीं.
उन्हें अपने संसाधनों और औद्योगिक क्षमता पर भी भरपूर भरोसा है यह भारी पाबंदियां झेल रहे रूसी शासक पहले ही दिखा चुके हैं.
अमरीका-नाटो खेमे की भडकाऊ हरकतों से पहले कठपुतलियों को सामने कर लडी जा रही सीमित जंग के अब इन खेमों के बीच खुली जंग में बदल जाने का खतरा बढता जा रहा है जो दुनिया भर की निर्दोष आम मेहनतकश जनता के लिए जंग के मैदान व रिहायशी इलाकों में बमबारी से मौतों के रूप में ही नहीं, युद्ध से दूर की जगहों पर भी रोजाना की जिंदगी में भोजन, ईंधन, दवाओं तक के अभाव व महंगाई की भयंकर तकलीफों के रूप में भी भयावह विध्वंसकारी सिद्ध होगी.
साथ ही यह जंग पूंजीवाद के समस्त विकास, संपन्नता, चमक दमक, जनतंत्र, मानवाधिकारों, अभिव्यक्ति की आजादी की नौटंकी से भी परदा उठाकर पूंजीवाद को उसके संपूर्ण बदसूरत व घिनौने रूप में मानवता के सबसे बडे शत्रु के तौर पर भी समस्त शोषित उत्पीडित जन के समक्ष प्रस्तुत कर देगी और इस तरह इसके उन्मूलन की वस्तुगत परिस्थितियों को अत्यंत तेजी से निर्मित कर देगी!
ऐसे में बडा सवाल मजदूर वर्ग व उत्पीडितों की राजनीति करने वालों के सामने उपस्थित होगा कि क्या हम आजकल की सुधारवादी, चालू, मीम-चुटकुले टाइप राजनीति करते रहेंगे या सामने आ खडी हो रही स्थिति में अपनी वास्तविक ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाने के लिए गंभीरता से वैचारिक सांगठनिक तैयारी में जुटेंगे जैसा पिछली सदी की ऐसी साम्राज्यवादी लुटेरी जंग के दौरान लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने किया था?
—Mukesh Tyagi